जाति भेद पर भाषण करने के लिए बाबा साहब को जब एक सभा मे आमंत्रित किया गया तो उन्होंने इसे जड़-मूल से उखाड़ने को ध्यान में रखकर अपना लिखित भाषण तैयार किया। आयोजको ने जैसे ही इस लिखित भाषण को पढ़ा तो उनके होश उड़ गए और उन्होंने सभा को ही स्थगित कर दिया ...
खैर, बाबा साहब ने उस लिखे गए भाषण को बाद में जब एक पुस्तक का रूप दिया तो उसका नाम रखा, "जाति का उच्छेद"। इसमें उन्होंने निष्कर्ष दिया कि जाति-भेद की जड़ ब्राह्मणी धर्मग्रंथ में है, अतः वैदिक धर्मग्रंथों में डायनामाइट लगाने के अलावे जाति-मुक्ति का कोई अन्य रास्ता नही है। व्यवहार में इसका यही अर्थ हुआ कि हिन्दू धर्म ग्रंथो को विल्कुल शून्य मान लिया जाय, शून्य कर दिया जाय .. जैसे कि उनका कभी अस्तित्व ही नही रहा हो। यह कोई साधारण काम नही है, इसके लिए भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक इतिहास का पुनर्लेखन प्राथमिक शर्त है।
इस दिशा में आगे बढ़ते हुए डॉ. अंबेडकर ने एक प्रमुख ग्रंथ लिखा, "शुद्र कौन थे"। और इसमें उन्होंने तथ्यों और तर्कों के आधार पर साबित किया कि चतुर्वर्ण व्यवस्था विदेशी आर्यो की समाज-व्यवस्था थी। शुरुआत में वैदिक आर्यो में भी तीन वर्ण ही थे पर आपसी लड़ाई के बाद में चौथा वर्ण बना । इस चतुर्वर्ण व्यवस्था से भारत के मूलनिवासियों का कोई लेना देना नही है... लेकिन कालान्तर में जब आर्य-ब्राह्मण भारत के राज-समाज व्यवस्था पर काबिज हो गए तो अपनी उस व्यवस्था को यहां भी लाद दिया। और हारे हुए लोगो को सबसे निचले पायदान शुद्र वर्ण में डाल दिया गया। अब सवाल है कि यह कब हुआ? तो निश्चित ही ऐसा तब हुआ जब आर्य-ब्राह्मण भारत के राजनैतिक और समाजिक व्यवस्था पर पूरी तरह हाबी हो गए। 7वीं सताब्दी यानी हर्षवर्धन के काल तक यह सम्भव हुआ नही दिखता। स्पष्ट ही शंकराचार्य के समय मे इसकी नींव पड़ी और उसने भी बौद्ध का चोला पहनकर ही यह काम किया .. इसीलिए उसे प्रच्छन्न-बौद्ध भी कहा जाता है। वर्ना नागसेन, अश्वघोष, नागार्जुन, असंग, बसुबन्धु, बुद्धघोष .. आदि बौद्ध दार्शनिकों के रहते मामला 50-50 का भी नही, वल्कि बौद्धों की तरफ झुका हुआ था। हर्ष के बाद 8वीं सदी में इस्लाम के आगमन के साथ ही पाशा पलटा। खैर .. यह अलग विषय है ..
9वीं-10वीं सताब्दी में आधुनिक ब्राह्मणवाद की नींव रखी गई। यह ब्राह्मणों के द्वारा बौद्धों पर पूर्ण विजय के बाद ही सम्भव हुआ। इसी समय ब्राह्मणी धर्मग्रंथों का पुनर्लेखन हुआ और उनपर विस्तृत टिका भी लिखा गया। "मिताक्षरा" और "दयाभाग" जैसा टिका लिखा गया जो हाल तक हिन्दू कानून के मुख्य कानूनी पुस्तकें थी। इसी काल मे रामायण और महाभारत जैसे साहित्यिक कृति पर धार्मिक मुलम्मा चढ़ाया गया ...यही वह काल है जब थोक में भारत के मूलनिवासियों को, जो कथित धर्म के नेट से बाहर थे, धार्मिक बनाया गया। ......
आगे अछूत समस्या पर विचार करते हुए डॉ. अंबेडकर इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि, "ब्राह्मणों द्वारा बौद्धों के खिलाफ हिंदुओ के मन मे भरा गया घृणा का भाव अस्पृश्यता के मूल कारणों में से सबसे प्रमुख कारण था।"
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि बाबा साहब ने तीन अलग-अलग कम्युनिटी का जिक्र किया है - ब्राह्मण, बौद्ध और हिन्दू। इस प्रक्रिया का ध्यान से अवलोकन करने पर पाते हैं कि ब्राह्मण आज भी घृणा का एक हथियार की तरह इस्तेमाल बखूबी जारी रखे हुए हैं, पर हम अविद्या के कारण आज भी नासमझ बने हुए हैं।
यहाँ बाबा साहब आगे लिखते हैं, "लोगो को यह सोचने का, की ब्राह्मण अछूत से ऊंचा है, इतना अधिक अभ्यास हो गया है कि अछूत भी अपने आप को ब्राह्मणों से नीचा मानता है। यदि लोगो को यह बताया जाए कि अछूत ब्राह्मण को एक अपवित्र व्यक्ति मानते हैं तो उन्हें बड़ा ही आश्चर्य होगा। परंतु जिन विद्वानों ने अछूतों के सामाजिक रीति-रिवाजों को ध्यान से देखा और समझा है उन्होंने स्पष्ट ढंग से इस बात का उल्लेख किया है।"
और अब बाबा साहब ने यहां देश के विभिन्न भागों के अछूतों के ऐसे परम्पराओ का वृहद उल्लेख कर यह सप्रमाण सावित कर दिया है कि,"अछूत भी ब्राह्मणों से उतना ही घृणा करते हैं जितना ब्राह्मण अछूत से।" डॉ. अंबेडकर ने आगे बताया है कि ब्राह्मण और बौद्धों में तू डाल-डाल तो मैं पात-पात की होड़ भारतीय इतिहास की एक निर्णायक घटना है। इसी सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष से छुआ-छूत उत्पन्न हुआ और बौद्ध अछूत बन गए।अब प्रश्न है कि ब्राह्मण क्यो नही अछूत बने? ऐसा इसलिए सम्भव हुआ कि बीच वाले लोग जो गृहस्थ थे, उत्पादक थे, श्रमजीवी थे, जिन्हें बाबा साहब ने हिन्दू कहा है वे ब्राह्मणों के पक्ष में चले गए। यह क्यों कर हुआ! इसपर भी बाबा साहब ने विचार किया है, और इसका निम्न कारण बताया :
1. सामान्य घृणा।
2. छितरे व्यक्तियों का मांस खाते रहने की मजबूरी।
और इसका विस्तार से विश्लेषण भी किया है।
बाबा साहब आगे लिखते हैं:
"यह ध्रुव सत्य है कि प्रत्येक ब्राह्मण, चाहे वह रूढ़िवादी हो या नही, वह पुरोहित हो या गृहस्थ, विद्वान हो या बुद्धिहीन ; वह ब्राह्मणवाद का मुकुट धारण किए ही रहेगा । ब्राह्मण वाल्तेयर कैसे बन सकता है? ब्राह्मणों में से कोई वाल्तेयर पैदा हो गया तो वह उस संस्कृति के लिए प्रत्यक्ष खतरा बन जाएगा, जिसकी रचना ब्राह्मण की श्रेष्ठता बनाए रखने के लिए की गई है।"
अब यहां स्पष्ट हो जाना चाहिए कि अछूत वर्ग पहले बन गया था। क्योंकि की जिनको बाद में ब्राह्मणों ने शुद्र वर्ण में डाला, अगर पहले डाल दिया होता तो वे अछूतों के साथ चले गए रहते और तब ब्राह्मण ही अछूत बन जाते। अतः स्पष्ट है कि छितराये (असंगठित) बौद्धों को अछूत बनाने के बाद ब्राह्मणों ने अपनी व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए बीच वाले लोगो को गुलाम बना लिया और गुलामी को स्थाई बनाने के लिए उन्हें अपने चौथे वर्ण "शुद्र" में डाल दिया ... इस प्रकार ऐसी गुलामी की व्यवस्था पर धर्म का मुहर लग जाने से यह स्थाई बन गया ...
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